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यु॒वोर्दा॒नाय॑ सु॒भरा॑ अस॒श्चतो॒ रथ॒मा त॑स्थुर्वच॒सं न मन्त॑वे। याभि॒र्धियोऽव॑थ॒: कर्म॑न्नि॒ष्टये॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvor dānāya subharā asaścato ratham ā tasthur vacasaṁ na mantave | yābhir dhiyo vathaḥ karmann iṣṭaye tābhir ū ṣu ūtibhir aśvinā gatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वोः। दा॒नाय॑। सु॒ऽभराः॑। अ॒स॒श्चतः॑। रथ॑म्। आ। त॒स्थुः॒। व॒च॒सम्। न। मन्त॑वे। याभिः॑। धियः॑। अव॑थः। कर्म॑न्। इ॒ष्टये॑। ताभिः॑। ऊँ॒ इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म् ॥ १.११२.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:112» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:33» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के विषय में अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करानेहारे विद्वानो ! (सुभराः) जो अच्छे प्रकार धारण वा पोषण करते कि जो अति आनन्द के सिद्ध करानेहारे हैं, वा (असश्चतः) जो किसी बुरे कर्म और कुसङ्ग में नहीं मिलते वे सज्जन (मन्तवे) विशेष ज्ञानने के लिये जैसे (वचसं, न) सबने प्रशंसा के साथ विख्यात किये हुए अत्यन्त बुद्धिमान् विद्वान् जन को प्राप्त होवें वैसे (युवोः) आप लोगों के (रथम्) जिस विमान आदि यान को (आ, तस्थुः) अच्छे प्रकार प्राप्त होकर स्थिर होते हैं उसके साथ (उ) और (याभिः) जिनसे (धियः) उत्तम बुद्धियों को (कर्मन्) काम के बीच (इष्टये) हुए सुख के लिये (अवथः) राखते हैं (ताभिः) उन (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ तुम (दानाय) सुख देने के लिये हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आओ ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो तुमको उत्तम बुद्धि की प्राप्ति करावें उनकी सब प्रकार से रक्षा करो, जैसे आप लोग उनका सेवन करें वैसे ही वे लोग भी तुमको शुभ विद्या का बोध कराया करें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाध्यापकोपदेशकविषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विना सुभरा असश्चतो जना मन्तवे वचसं न युवोर्यं रथमातस्थुस्ते नो याभिर्धियः कर्मन्निष्टयेऽवथस्ताभिरूतिभिश्च युवां दानाय स्वागतमस्मान् प्रतिश्रेष्ठतयाऽऽगच्छतम् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवोः) युवयोः (दानाय) सुखवितरणाय (सुभराः) ये सुष्ठु भरन्ति पुष्णन्ति वा (असश्चतः) असमवेताः (रथम्) रमणसाधनं यानम् (आ) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वचसम्) सर्वैः स्तुत्या परिभाषितं मनुष्यम् (न) इव (मन्तवे) विज्ञातुम् (याभिः) (धियः) प्रज्ञाः (अवथः) रक्षथः (कर्मन्) कर्मणि (इष्टये) इष्टसुखाय (ताभिः) (उ) (सु) (ऊतिभिः) (अश्विना) विद्यादिदातारावध्यापकोपदेशकौ (आ) समन्तात् (गतम्) प्राप्नुतम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ये युष्मान् प्रज्ञां प्रापयेयुस्तान् सर्वथा सुरक्षय। यथा भवन्तो तेषां सेवनं कुर्युस्तथैव तेऽपि युष्मान् शुभां विद्यां बोधयेयुः ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे तुम्हाला उत्तम बुद्धीची प्राप्ती करवितात त्यांचे सर्व प्रकारे रक्षण करा. जसा तुम्ही त्यांचा अंगीकार करता तसे त्यांनीही तुम्हाला चांगल्या विद्येचा बोध करावा. ॥ २ ॥